नई दिल्ली: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के प्रमुख मोहन भागवत ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) और संघ के संबंधों को लेकर एक महत्वपूर्ण बयान दिया है। उन्होंने स्पष्ट किया कि भाजपा और संघ के बीच मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उनके बीच कभी भी वैचारिक मतभेद (मनभेद) नहीं होगा। यह बयान ऐसे समय में आया है जब कुछ समय से दोनों संगठनों के बीच तनाव की अटकलें लगाई जा रही थीं।
बीजेपी के फैसलों में संघ की भूमिका पर क्या बोले भागवत?
भागवत ने कहा कि केंद्र और राज्यों में सभी सरकारों के साथ संघ का समन्वय रहता है। उन्होंने साफ किया, “किसी विषय पर संघ केवल सलाह दे सकता है, लेकिन अंतिम निर्णय भाजपा का ही होता है। अगर निर्णय संघ को लेना होता तो क्या इतना समय लगता?” इस बयान को भाजपा के आगामी अध्यक्ष के चुनाव में हो रही देरी से जोड़कर देखा जा रहा है।
जब राजीव गांधी की मदद के लिए आगे आया संघ
संघ प्रमुख ने अपने बयान में कई ऐतिहासिक घटनाओं का भी ज़िक्र किया। उन्होंने बताया कि कैसे संघ ने विभिन्न राजनीतिक दलों और नेताओं के साथ मिलकर काम किया है। उन्होंने 1948 में जयप्रकाश नारायण और बाद में प्रणब मुखर्जी के साथ संघ के संबंधों का उल्लेख किया। एक चौंकाने वाले खुलासे में उन्होंने बताया कि जब राजीव गांधी NSUI के अध्यक्ष थे, तब नागपुर अधिवेशन में खाने को लेकर हंगामा होने पर संघ से मदद मांगी गई थी, और संघ ने तुरंत मदद मुहैया कराई थी।
शिक्षा और संस्कृत पर संघ प्रमुख की राय
मोहन भागवत ने शिक्षा नीति पर भी अपने विचार साझा किए। उन्होंने कहा कि धार्मिक मान्यताएं अलग हो सकती हैं, लेकिन शिक्षा की सामाजिक मान्यताएं एक होनी चाहिए। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि मदरसों और मिशनरी स्कूलों सहित सभी शैक्षणिक संस्थानों में शिक्षा का स्तर समान होना चाहिए।
उन्होंने संस्कृत भाषा को लेकर भी अपनी राय दी। भागवत के अनुसार, संस्कृत का कामचलाऊ ज्ञान सभी भारतीयों को होना चाहिए ताकि वे भारत को बेहतर ढंग से समझ सकें। हालांकि, उन्होंने इसे अनिवार्य बनाने के खिलाफ़ चेतावनी देते हुए कहा, “इसे अनिवार्य बनाने की ज़रूरत नहीं है, वरना इसका उलटा असर (रिएक्शन) हो सकता है।”
इस बयान से यह साफ हो जाता है कि भले ही संघ और भाजपा की भूमिकाएं अलग-अलग हैं, लेकिन उनके लक्ष्य और वैचारिक जुड़ाव में कोई अंतर नहीं है।